भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष और उसके बाद हुए सीज़फ़ायर को दस दिन होने जा रहे हैं.
22 अप्रैल को पहलगाम में हुए हमले में 26 लोग मारे गए थे. पहलगाम हमले के क़रीब एक पखवाड़े बाद भारत ने सीमा और नियंत्रण रेखा के पार स्थित नौ ठिकानों पर सैन्य कार्रवाई की. भारत ने इन्हें 'आतंकियों का ठिकाना' बताया था.
इसके बाद पाकिस्तान ने सीमा पार से गोलाबारी की और ड्रोन से हमले किए. इस संघर्ष के बीच और इसके बाद कई तरह के दावे और आरोप-प्रत्यारोप हुए.
इनमें से कुछ दावों की पुष्टि हुई लेकिन ज़्यादातर की अब तक पुष्टि नहीं हो सकी है. इस पूरे घटनाक्रम के बाद कई सैन्य, कूटनीतिक और राजनीतिक सवाल हैं, जिनका जवाब अब तक सीधे तौर पर नहीं मिला है.
बीबीसी ने रक्षा, कूटनीति और सुरक्षा मामलों के जानकारों से ऐसे ही कुछ अहम सवालों के जवाब जानने की कोशिश की.
पहलगाम के हमलावर
जम्मू-कश्मीर पुलिस ने पहलगाम हमले में शामिल तीन लोगों की की थी. पुलिस के अनुसार इनमें से एक कश्मीरी और दो पाकिस्तानी थे.
इनके नाम हैं- अनंतनाग निवासी आदिल हुसैन ठोकर, हाशिम मूसा उर्फ़ सुलेमान और अली भाई उर्फ़ तल्हा भाई. इनके बारे में जानकारी देने पर 20 लाख रुपए के इनाम का एलान भी किया गया.
इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने में कहा था, "आतंकियों ने हमारी बहनों का सिंदूर उजाड़ा था, इसलिए भारत ने आतंक के ये हेडक्वार्ट्स उजाड़ दिए. भारत के इन हमलों में 100 से अधिक खूंखार आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा गया है."
लेकिन सवाल अब भी है कि पहलगाम के हमलावरों का क्या हुआ.
बीबीसी ने यही सवाल सेना के ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) जीवन राजपुरोहित से किया.
ब्रिगेडियर राजपुरोहित ने कहा, "इन आतंकियों का सफ़ाया इसलिए मुश्किल है क्योंकि इनके आसपास स्थानीय समर्थन का नेटवर्क है. दूसरी बात यह है कि इन्हें पाकिस्तान से मदद मिलती है. ये दोनों पहलू मिलकर भारत के लिए आतंकवाद को जड़ से ख़त्म करना ज़रूरी बना देते हैं. यह एक पूरा ढाँचा है. इसीलिए, आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए केवल आतंकियों को मारना काफ़ी नहीं है, बल्कि उस पूरे ढाँचे को तोड़ना ज़रूरी है जो इसे चलाता है."
वे कहते हैं, "पाकिस्तान में इस पूरी विचारधारा को ख़त्म करना इन आतंकवादियों को मारने से अधिक महत्वपूर्ण है. कुछ आतंकवादियों को मार देने से आतंकवाद की जड़ पर हमला नहीं होगा."
सीमा पार से हुए हमले में आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों की भी बीबीसी समेत कई मीडिया संस्थानों ने पीड़ित परिवारों से बात भी की है. हालांकि, सरकार की ओर से अभी तक मरने वालों का कोई आधिकारिक आँकड़ा जारी नहीं किया गया है.
यहाँ सवाल यह उठता है कि जब सीमा पर गोलीबारी की आशंका थी तो क्या केंद्र और राज्य सरकारों को सीमावर्ती इलाक़ों से लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाने के आदेश नहीं देने चाहिए थे?
इस सवाल का जवाब देते हुए सेना के एयर मार्शल (रिटायर्ड) दिप्तेन्दु चौधरी बताते हैं, "ऐसी स्थिति से निपटने के लिए तय मानक होते हैं. हर राज्य का अपना प्रोटोकॉल होता है. कश्मीर के सीमावर्ती इलाक़ों में आबादी सबसे कम है. जम्मू में ज़्यादा और पंजाब में सबसे ज़्यादा है."
एयर मार्शल चौधरी कहते हैं, ''सीमा के पास रहने वाले लोग ऐसी हालत का पहले भी सामना कर चुके हैं. वे कई सालों से गोलाबारी का सामना कर रहे हैं. वहाँ के लोग पहले से ही तैयार रहते हैं. बंकर बने हुए हैं. कई ज़रूरी व्यवस्थाएँ हैं. जब सायरन बजता है या ब्लैकआउट होता है तो उन्हें पता होता है कि क्या करना है."
वे बताते हैं, ''जब जंग होने की आशंका बढ़ जाती है या सेना की तैनाती बढ़ने लगती है तब ही लोगों को वहाँ से हटाने का काम होता है. तब ही सीमा के इलाक़ों को खाली कराया जाता है. इसके लिए पर्याप्त समय दिया जाता है. चूँकि यह उस मायने में जंग नहीं थी, इसलिए ऐसा नहीं किया गया. गोलाबारी अचानक होने लगती है, इसलिए पहले से चेतावनी देना मुमकिन नहीं होता."
ये भी पढ़ें-जम्मू-कश्मीर के पांपोर इलाके में धातु का एक बड़ा टुकड़ा गिरा मिला था, सरकार ने इस बात का खंडन या पुष्टि नहीं कि वह किसी भारतीय विमान का हिस्सा था या नहीं.
दूसरी ओर, पाकिस्तान ने दावा किया कि उसने भारत के रफ़ाल विमानों को गिराया है.
जब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एयर मार्शल एके भारती से इसके बारे में सवाल पूछा गया तो उन्होंने , "हम कॉम्बैट की स्थिति में हैं और नुक़सान इसका एक हिस्सा है. आपको जो सवाल पूछना चाहिए वह यह है कि क्या हमने अपने उद्देश्य हासिल कर लिए हैं? क्या हमने आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के अपने उद्देश्य को हासिल कर लिया है? और इसका जवाब हाँ है."
एयर मार्शल भारती ने , ''अभी अधिक जानकारी नहीं दी जा सकती. इससे विरोधियों को फ़ायदा मिल सकता है... हाँ, मैं इतना कह सकता हूँ... हमारे सभी पायलट घर वापस आ गए हैं."
क्या भारत ने पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों को गिराया है, इस सवाल पर एयर मार्शल एके भारती ने, "उनके विमानों को हमारी सीमा में आने से रोका गया. हमारे पास उनका मलबा नहीं है."
एयर मार्शल चौधरी के मुताबिक, इस बारे में कई तरह की सोच है कि जब कोई ऑपरेशन चल रहा हो तो नुक़सान के बारे में सार्वजनिक तौर पर जानकारी दी जाए या नहीं.
वे कहते हैं, "बालाकोट का उदाहरण लें. उस वक़्त हम अपने मिशन की उपलब्धियों को सार्वजनिक तौर पर बताने के लिए तैयार नहीं थे. उस वक़्त विदेश मंत्रालय सार्वजनिक तौर पर जानकारी दे रहा था. रक्षा मंत्रालय बाद में आया. जब तक रक्षा मंत्रालय सामने आया, तब तक नैरेटिव बदल चुका था. दो दिनों बाद अभिनंदन पकड़ लिए गए. इसके बाद दुनिया का पूरा ध्यान वहीं चला गया. आतंक को निशाना बनाने के भारत के रणनीतिक मक़सद को भुला दिया गया."
एयर मार्शल चौधरी कहते हैं, "सेना को नुक़सान होगा. यह उनके काम का हिस्सा है. इसकी गिनती अहम नहीं है. किसने कितने जेट मार गिराए, यह मुद्दा नहीं है. मूल बात यह होनी चाहिए कि क्या हम अपने रणनीतिक उद्देश्य में कामयाब हुए? नुक़सान तो होंगे लेकिन क्या रणनीतिक मक़सद पूरा हुआ? यही मायने रखता है."
भारत और अमेरिका के बीच क्या बातचीत हुई थी?भारत और पाकिस्तान की ओर से आधिकारिक तौर पर संघर्ष विराम का एलान होता, उससे पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बयान दिया.
उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार की मध्यस्थता की वजह से दोनों देश "संघर्ष तुरंत और पूरी तरह रोकने" पर सहमत हुए हैं.
दूसरी ओर, भारत का कहना है कि यह सीज़फायर पाकिस्तानी डायरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) की पहल पर हुआ था. भारत ने ट्रंप के दावों का खंडन तो नहीं किया लेकिन उसकी तस्दीक भी नहीं की.
पूर्व भारतीय राजनयिक दिलीप सिंह बीबीसी से बातचीत में अनुमान लगाते हैं, "ऐसा लगता है कि पाकिस्तान ने अमेरिका से संपर्क किया होगा. इसके बाद अमेरिका ने भारत से बात की होगी. भारत ने कहा होगा कि हम तैयार हैं लेकिन पहल पाकिस्तान की तरफ़ से होनी चाहिए. इसके बाद पाकिस्तान ने अपने डीजीएमओ से भारत के डीजीएमओ का संपर्क करवाया. हमारे डीजीएमओ ने संघर्ष विराम पर सहमति जताई होगी. फिर सीज़फ़ायर लागू हुआ."
उन्होंने कहा, "भारत के लिए अमेरिका के साथ बेहतर संबंध बेहद ज़रूरी हैं. बहुत कुछ दाँव पर लगा है. यह रिश्ता सिर्फ़ राष्ट्रपति ट्रंप तक सीमित नहीं है."
विपक्ष और संघर्ष विरामट्रंप के बयान और संघर्ष विराम के एलान के बाद लगातार सरकार पर दबाव बना रहा है कि वह इसकी पूरी जानकारी साझा करे कि संघर्ष विराम का फ़ैसला कैसे हुआ. सीज़फ़ायर में अमेरिका की भूमिका के बारे में साफ़ तौर पर बताए.
लेकिन सवाल उठता है, क्या सरकार को ऐसे सैन्य ऑपरेशन के मामले में विपक्ष से सलाह लेनी चाहिए?
इस पर दिलीप सिंह कहते हैं, "यह किसी भी प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं है. ऐसी रणनीतिक और सैन्य कार्रवाइयों में सरकार को बहुत कुछ देखकर फ़ैसले लेने होते हैं. इसलिए जिनका जुड़ाव ऑपरेशन से सीधे नहीं होता, उनसे सलाह लेना संभव नहीं होता. ऑपरेशन के ब्योरे सबसे साझा नहीं किए जाते. इसलिए ऑपरेशन की जानकारी देना सुरक्षा के लिए बड़ा ख़तरा हो सकता है."
राजनीतिक विशेषज्ञ और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर चंद्रचूड़ सिंह कहते हैं कि सैन्य नीति के मामले में विपक्ष से सलाह- मशविरा करने का ऐसा कोई उदाहरण नहीं रहा है.
बीबीसी से वह कहते हैं, "आप 1971 का भारत-पाकिस्तान का युद्ध ही देख लीजिए. तब भी युद्ध की रणनीति पर विपक्ष के साथ कोई बात ही नहीं हुई थी. पार्लियामेंट्री सिस्टम में मिलिट्री से जुड़े फ़ैसले संसद में नहीं लाए जाते. भले ही उस पर बाद में बाद में चर्चा क्यों न हो.''
प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं, "सेना से जुड़े फ़ैसले उनके द्वारा लिए जाते हैं जिनके पास ऑपरेशन से जुड़े ब्योरे और मिलिट्री इंटेलिजेंस हो. इसलिए सीज़फ़ायर करना है कि नहीं- मेरी राय में यह विपक्ष से पूछना ज़रूरी नहीं है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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