सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय का निभाया गया मान
नागपुर, 25 सितंबर (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) की स्थापना के शताब्दी वर्ष की शुरुआत 2 अक्टूबर से होने जा रही है। इस अवसर पर पिछले 10 दशकों के इतिहास के पन्ने पलटे जा रहे हैं। आरएसएस की स्थापना करने वाले आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार भले ही संस्थापक रहे हों, लेकिन वे स्वयं इस संगठन के प्रमुख पद पर आसीन होना नहीं चाहते थे। उनके निस्पृह(इच्छारहित)स्वभाव के कारण उन्होंने कभी यह पद नहीं चाहा। फिर भी तत्कालीन पदाधिकारियों ने उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंपी थी।
संघ प्रमुख का पद और उत्तराधिकार की परंपरा
संघ के प्रमुख पद को ‘सरसंघचालक’ कहा जाता है। डॉ. हेडगेवार इसके पहले सरसंघचालक रहे। उनके बाद क्रमशः गुरु गोलवलकर, मधुकर दत्तात्रेय देवरस, रज्जू भैय्या, प्रो. सुदर्शन और वर्तमान में डॉ. मोहन भागवत इस पद पर कार्यरत हैं। एक समय के लिए लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को कार्यवाहक सरसंघचालक की जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी।
संघ में दूसरा सर्वोच्च पद ‘सरकार्यवाह’ (महासचिव) होता है, जिसकी नियुक्ति हर तीन वर्ष में चुनाव के माध्यम से होती है। वर्तमान में यह जिम्मेदारी दत्तात्रेय होसबाले के पास है।
हालांकि, सरसंघचालक के उत्तराधिकारी की नियुक्ति के लिए परंपरा है कि वर्तमान सरसंघचालक वरिष्ठ पदाधिकारियों से विचार-विमर्श कर स्वयं अपने उत्तराधिकारी का चयन करते हैं।
डॉ. हेडगेवार के घर हुई थी संघ की स्थापना
डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को नागपुर के शुक्रवार पेठ स्थित अपने निवास स्थान पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। विजयादशमी के दिन उनके साथ विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, ल.वा. परांजपे, रघुनाथराव बांडे, भैय्याजी दाणी, बापू भेदी, अण्णा वैद्य, कृष्णराव मोहरील, नरहर पालेकर, दादाराव परमार्थ, अण्णाजी गायकवाड, देवघरे, बाबूराव तेलंग, तात्या तेलंग, बाळासाहेब आठल्ये, बालाजी हुद्दार और अण्णा सोहनी जैसे स्वयंसेवकों ने संघ के बीज रोपे।
कुछ वर्षों तक बिना प्रमुख के ही चलता रहा संघ का कार्य
ना.हा. पालकर लिखित पुस्तक डॉ. हेडगेवार के अनुसार संघ की स्थापना के बाद वर्ष 1925 से 1929 तक लगभग चार वर्षों तक ‘सरसंघचालक’ का कोई पद नहीं था। अक्टूबर 1929 में नागपुर में संघ की एक महत्वपूर्ण बैठक आयोजित करने की योजना बनी। डॉ. हेडगेवार ने 19 अक्टूबर 1929 को सभी प्रांत प्रचारकों को पत्र लिखकर 9 और 10 नवंबर को नागपुर में प्रस्तावित बैठक में उपस्थित होने का आह्वान किया।
इस पत्र में उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि संघ की प्रशासनिक संरचना के लिए एक प्रमुख की आवश्यकता है। यह बैठक नागपुर के मोहिते वाड़ा भवन में आयोजित की जानी तय हुई, जो आज संघ मुख्यालय के रूप में प्रसिद्ध है।
डॉ. हेडगेवार को दी गई जिम्मेदारी
डॉ. हेडगेवार व्यक्तिगत पूजा के विरोधी थे। इसी कारण उन्होंने किसी व्यक्ति की बजाय भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। वे स्वयं संघ प्रमुख बनने के इच्छुक नहीं थे। फिर भी मोहिते वाड़ा में आयोजित बैठक में उपस्थित तत्कालीन पदाधिकारियों—विश्वनाथराव केलकर, बालाजी हुद्दार, अप्पाजी जोशी, कृष्णराव मोहरीर, तात्याजी कालीकर, बापूराव मुठाल, बाबासाहेब कोलते और मार्तंडराव जोग ने सर्वसम्मति से डॉ. हेडगेवार को संघ का पहला सरसंघचालक नियुक्त करने का निर्णय लिया।
इच्छा के विरुद्ध डॉ. हेडगेवार को बना दिया गया सरसंघचालक
निर्धारित कार्यक्रमानुसार मोहिते वाड़ा में बैठक हुई। उस समय डॉ. हेडगेवार भगवा ध्वज के पास खड़े थे, जबकि अन्य स्वयंसेवक प्रवेशद्वार के समीप थे। अचानक वर्धा के संघचालक अप्पाजी जोशी ने जोर से कहा, सरसंघचालक प्रणाम, एक… दो… तीन!
डॉ. हेडगेवार स्तब्ध रह गए। इसके बाद अप्पाजी जोशी ने पिछले दिन की बैठक में लिए गए निर्णयों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि संघ की प्रशासनिक संरचना बन रही है, जिसके शीर्ष पर ‘सरसंघचालक’ होगा और पहले सरसंघचालक के रूप में डॉ. हेडगेवार का चयन किया गया है।
हालांकि उस समय डॉ. हेडगेवार मौन रहे, लेकिन बाद में उन्होंने अप्पाजी जोशी से इस निर्णय पर अपनी नाराजगी भी व्यक्त की थी। उसी बैठक में ‘सरकार्यवाह’ के रूप में बालाजी हुद्दार और ‘सरसेनापति’ के रूप में मार्तंडराव जोग की भी घोषणा की गई थी। बाद में ‘सरसेनापति’ पद को संघ की कार्यकारिणी से हटा दिया गया। आज भी, सरसंघचालक और सरकार्यवाह ये दो पद संघ और उससे जुड़े संगठनों में सर्वोच्च माने जाते हैं।
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हिन्दुस्थान समाचार / मनीष कुलकर्णी
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