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Opinion: 'एक दीवाने की दीवानियत' देख ली, अब सिर पीटिए! मेकर्स ने पकड़ी Gen Z की नस, प्लीज हमें 'प्रेम' लौटा दो

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'सैयारा' के रिलीज होने के बाद और कमजोर दिलवाले आशिकों के छाती पीटकर रोने के बाद अब उसी तरह की एक और फिल्म आ गई है 'एक दीवाने की दीवानियत'। जितना छपरी इस फिल्म का टाइटल है उससे थोड़ी ज्यादा छपरी है कहानी। 'छपरी' इसलिए क्योंकि ये शब्द इस तरह की फिल्म के लिए मेरे ख्याल से सबसे सटीक है। फिल्म में कुछ हो न हो, तगड़े गाने और भारी डायलॉग्स जरूर हैं जिसने किसी तरह से इज्जत बचा रखी है। मैं ज्यादा बात फिल्म पर नहीं करूंगी बल्कि ऐसी फिल्में बनाने के पीछे वाले की मंशा पर करूंगी। आखिर कारण क्या है जो सरफिरे आशिकों की बातें इतनी ज्यादा हो रही हैं।

मेरी नजर में ये गलती थोड़ी सी हमारी भी है। Gen Z कही जाने वाली जेनरेशन ने अपने सिर एक ऐसा गुनाह ले लिया है जिसके लिए इन्हें जितना भी बोला जाए, कम ही है। वैसे तो दुर्भाग्य से, मैं भी इसी जेनरेशन से हूं लेकिन जब चार लोग सवाल करते हैं तो समझ नहीं आता कि क्या सफाई दूं। इनकी चॉइस ही ऐसी है जिसके लिए इनका सुनना तो बनता भी है। ऐसी फिल्में बनने के पीछे का कारण भी यही जेनरेशन है जो खूब मजे से देखने जाती है और वापस आकर उसी हीरोगिरी को खुद में ढालने की कोशिश करती है। इन्हीं एक्टर्स को आइडल भी बनाती है और सिर पर भी बैठाती है। मुझे दिक्कत किसी हीरो-हीरोइन से नहीं है, क्योंकि हर्षवर्धन राणे का काम फिल्म में कमाल है। एक्टिंग के मामले में सवाल उनपर उठाना गलत है लेकिन सवाल ये है कि इस तरह की फिल्में पहली पसंद क्यों हैं।

'एक दीवाने की दीवानियत' जैसी फिल्में बंद करो गुरु!हर्षवर्धन राणे और सोनम बाजवा ने काम तो बढ़िया किया है। उनकी भी कोई गलती नहीं है। जब मेकर्स को पता है कि क्या परोसना है थाली में जो भले टेस्टी ना हो लेकिन सुंदर दिखे तो एक्टर्स भी क्या कर सकते हैं। बोल लेते हैं चार डायलॉग, फिल्म तो हिट होनी ही है। वैसे तो मुझे फिल्म भी पसंद नहीं आई। कूड़ा कॉन्सेप्ट पर बनी ये रोमांटिक ड्रामा मुझसे 6 मिनट से ज्यादा बरदाश्त नहीं हुई लेकिन मुद्दा ये है कि आखिर क्यों बनानी पड़ी ये फिल्म!

Gen Z ने नाक कटा रखा है, इन्हें 'विवाह' दिखाओकारण है ये जेनरेशन जो IV ड्रिप लगाकर 'सैयारा' देखने पहुंची थी। इनको ऐसे आशिकों की कहानी दिल छूने वाली लग रही है जिनको आइडल बना बैठे हैं। इस चक्कर में हम वो दौर भूल ही गए हैं जब 'हम साथ-साथ हैं' के प्रेम जैसे लड़के लड़कियों की पहली पसंद होते थे। 'विवाह' में शाहिद कपूर हों या 'कभी खुशी कभी गम' में शाहरुख खान। ये एक वक्त था जब के हीरो शर्मीले, शांत और अपनी सादगी से किसी का भी दिल चुरा लेने वाले होते थे।



सादगी से दिल जीतने वाले हीरो कहां खो गए?लोगों के दिलों पर अपनी सादगी से राज करने वाले हीरोज का दौर कहां गया! वैसी फिल्में अब क्यों नहीं बनतीं जिनमें हीरोइन का पसंद ऐसे मर्द हुआ करते थे! 'एक दीवाने की दीवानियत' जैसी फिल्में बनने का कारण यही है कि इस वक्त के लोगों को यही मजनू पसंद आते हैं। प्यार में हद से गुजरने वाले, मरने-मारने को तैयार आशिक और लड़की के प्यार का भूत सवार करके जीने वाले लड़के। यही पसंद है इस पीढ़ी की, तो क्या करें फिल्ममेकर्स भी। फिल्में बनती जा रही हैं और लोग मजे लेते जा रहे हैं। वैसे एक सच ये भी जान लेना चाहिए कि चाहे जितने भी हर्षवर्धन राणे और कृष कपूर बन लो, लड़की जाएगी प्रेम के पास ही। क्योंकि कुल मिलाकर अंत में वही सुख समझ आता है।

ये पीढ़ी अपना बेड़ा गर्क करेगी, इन्हें बक्श दोये सब जानते-समझते हुए भी ये पीढ़ी इसी सोच की दीवानी है जो उन्हें और कहीं नहीं बल्कि गर्क में लेकर जाएगी, इसीलिए यही कहानी रची जा रही है। अभी तो मजे में इंटरनेट ट्रेंड बना हुआ है सबकुछ लेकिन वो दिन दूर नहीं जब मेकर्स लोगों की मेंटल हेल्थ को भी जरिया बनाकर फिल्में बनाने लग जाएंगे, अगर यही हाल रहा तो। ये फिल्में देखकर जिन्हें भी हीरोगिरी सूझ रही है, वही कल को बड़े क्राइम करने का ठप्पा भी लगवाएंगे। क्योंकि लोगों की मानसिकता होती है वो फिल्म को फिल्म की तरह नहीं देखेंगे बल्कि सारे दिमाग के घोड़े उसीमें दौड़ा लेंगे।




हे फिल्ममेकर्स! हमें हमारे प्रेम और राज लौटा दोअनुरोध है फिल्ममेकर्स से, हमें हमारे पुराने प्रेम और राज वापस लौटा दो। हमें नहीं चाहिए ये कबीर सिंह, 'एनिमल' का रणबीर कपूर और विक्रमादित्य भोसले। सादगी, मासूमियत और शांति से भरे कैरेक्टर्स भी हमारी उत्तेजना बढ़ाते हैं। पीछे पड़कर हेकड़ी झाड़ने वाला नहीं देखना हमें। हमारा पुराना दौर वापस लौटा दो। और ये फिल्म देखकर जितना हमारा वक्त बर्बाद किया है, कुछ न बन पड़े तो टिकट के पैसे ही लौटा दो।

लेख में लिखीं बातें लेखक के निजी विचार हैं।
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