नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया जिसमें याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि केंद्र सरकार से अनुदान प्राप्त ऑटोनोमस बॉडी, संगठनों और स्वायत्त निकायों में आरक्षण लागू किया जाए। जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली बेंच ने हालांकि याचिकाकर्ताओं को यह छूट दी कि वे इस विषय पर केंद्र सरकार को एक समग्र रिप्रजेंटेशन (comprehensive representation) दे सकते हैं।
अदालत ने कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि संबंधित अधिकारी, यदि कोई सरकारी नीति मौजूद है, तो उस प्रतिवेदन पर विचार नहीं करेंगे। यह याचिका उन संस्थानों, स्वायत्त निकायों और संगठनों में आरक्षण लागू करने की मांग के लिए दायर की गई थी जो सरकार से अनुदान (grant-in-aid) प्राप्त करते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 30 सितंबर 1974 और 7 अक्टूबर 1974 को ही केंद्र सरकार ने ऐसे संगठनों में आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका के निर्देश जारी किए थे।
इसके बाद भी मंत्रालयों/विभागों को यह कहा गया था कि अनुदान प्राप्त करने वाले संगठनों को आरक्षण नीति का पालन करने की शर्त शामिल की जाए। लेकिन इन निर्देशों का अब तक पालन नहीं किया गया है। वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. एस. मुरलीधर ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी कि पिछले 50 वर्षों से ये निर्देश केवल औपचारिक रूप से जारी किए जा रहे हैं। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) ने 2024 में इन्हें दोहराया था, लेकिन फिर भी इनका पालन नहीं हुआ। इस पर अदालत ने कहा कि यह कहना उचित नहीं होगा कि 2024 में नए निर्देश जारी किए गए थे, क्योंकि 2024 में तो केवल पूर्व के सभी निर्देशों का संकलन (compendium) जारी हुआ था।
अदालत ने सोमवार को कहा कि याचिकाकर्ताओं ने बिना अधिकारियों को उचित समय दिए, यह याचिका दायर कर दी। उन्हें पहले एक विस्तृत प्रतिवेदन देना चाहिए था, जिसमें ऐसे संगठनों की सूची होती जो अनुदान तो प्राप्त कर रहे हैं लेकिन आरक्षण नीति नहीं अपना रहे। इसके आधार पर वे सरकार से यह आग्रह कर सकते थे कि ऐसे संगठनों की अनुदान राशि रोकी जाए। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि याचिकाकर्ताओं द्वारा सूचना का अधिकार (RTI) के तहत मांगी गई जानकारी अस्पष्ट थी। दुर्भाग्यवश, RTI में मांगी गई जानकारी बहुत सामान्य थी और किसी एक संगठन का ठोस उदाहरण देने के बजाय, याचिकाकर्ताओं ने सीधे आरक्षण की मांग कर दी।
अदालत ने कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि संबंधित अधिकारी, यदि कोई सरकारी नीति मौजूद है, तो उस प्रतिवेदन पर विचार नहीं करेंगे। यह याचिका उन संस्थानों, स्वायत्त निकायों और संगठनों में आरक्षण लागू करने की मांग के लिए दायर की गई थी जो सरकार से अनुदान (grant-in-aid) प्राप्त करते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 30 सितंबर 1974 और 7 अक्टूबर 1974 को ही केंद्र सरकार ने ऐसे संगठनों में आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका के निर्देश जारी किए थे।
इसके बाद भी मंत्रालयों/विभागों को यह कहा गया था कि अनुदान प्राप्त करने वाले संगठनों को आरक्षण नीति का पालन करने की शर्त शामिल की जाए। लेकिन इन निर्देशों का अब तक पालन नहीं किया गया है। वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. एस. मुरलीधर ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी कि पिछले 50 वर्षों से ये निर्देश केवल औपचारिक रूप से जारी किए जा रहे हैं। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) ने 2024 में इन्हें दोहराया था, लेकिन फिर भी इनका पालन नहीं हुआ। इस पर अदालत ने कहा कि यह कहना उचित नहीं होगा कि 2024 में नए निर्देश जारी किए गए थे, क्योंकि 2024 में तो केवल पूर्व के सभी निर्देशों का संकलन (compendium) जारी हुआ था।
अदालत ने सोमवार को कहा कि याचिकाकर्ताओं ने बिना अधिकारियों को उचित समय दिए, यह याचिका दायर कर दी। उन्हें पहले एक विस्तृत प्रतिवेदन देना चाहिए था, जिसमें ऐसे संगठनों की सूची होती जो अनुदान तो प्राप्त कर रहे हैं लेकिन आरक्षण नीति नहीं अपना रहे। इसके आधार पर वे सरकार से यह आग्रह कर सकते थे कि ऐसे संगठनों की अनुदान राशि रोकी जाए। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि याचिकाकर्ताओं द्वारा सूचना का अधिकार (RTI) के तहत मांगी गई जानकारी अस्पष्ट थी। दुर्भाग्यवश, RTI में मांगी गई जानकारी बहुत सामान्य थी और किसी एक संगठन का ठोस उदाहरण देने के बजाय, याचिकाकर्ताओं ने सीधे आरक्षण की मांग कर दी।
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