वैज्ञानिक दृष्टि से एकादशी का समय विशेष महत्वपूर्ण होता है। इस तिथि के आसपास चंद्रमा की कलाओं में परिवर्तन होता है, जिससे शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है, इसलिए एकादशी के दिन उपवास और ध्यान द्वारा शरीर को संयमित रखना और मन को स्थिर करना सर्वोत्तम उपाय है। यह प्रक्रिया शरीर को विषम तत्वों से मुक्त करती है और मानसिक एकाग्रता को बढ़ाती है।
शास्त्रों के अनुसार, इस दिन अन्न का त्याग और उपवास करना अत्यंत फलदायी माना गया है। पद्म, स्कंद और विष्णु धर्मोत्तर पुराण में उल्लेख है कि एकादशी व्रत के दौरान अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। आयुर्वेद की दृष्टि से भी यह व्रत महत्वपूर्ण है, शरीर में होने वाले वात, पित्त और कफ के असंतुलन से ही अधिकांश रोग उत्पन्न होते हैं और उपवास इन त्रिदोषों को संतुलित करने में सहायक होता है, इससे शरीर स्वस्थ रहता है, मन प्रसन्न होता है और विचारों में सकारात्मकता आती है।
पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय दैत्य मुर के आतंक से त्रस्त देवताओं की रक्षा के लिए भगवान विष्णु युद्ध में प्रवृत्त हुए। वर्षों तक युद्ध करने के बाद जब वे विश्राम करने लगे, तभी उनके शरीर से एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। उस शक्ति ने कहा, “मैं आपकी पुत्री हूं, असुर के विनाश के लिए अवतरित हुई हूं। मेरा नाम एकादशी है।” भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न होने के कारण इस तिथि को उत्पन्ना एकादशी कहा गया। यह कथा प्रतीक है कि प्रत्येक मनुष्य में एक दिव्य शक्ति निहित है, जो रोग, दुःख और नकारात्मकता का नाश कर सकती है। मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को यह व्रत किया जाता है।
प्रातः स्नान के बाद भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण की पूजा पुष्प, जल, धूप और अक्षत से करें। व्रतधारी को दशमी की रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन, पितृ तर्पण, पीपल वृक्ष में जल अर्पण तथा दान-पुण्य करने से सौभाग्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर को उत्पन्ना एकादशी का महात्म्य सुनाया था। कहा गया है कि इस व्रत को श्रद्धा और विधि-विधान पूर्वक करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। उत्पन्ना एकादशी आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने के साथ-साथ शरीर, मन और आत्मा, तीनों को संतुलित कर जीवन में नवचेतना और कल्याण का संचार करती है।
शास्त्रों के अनुसार, इस दिन अन्न का त्याग और उपवास करना अत्यंत फलदायी माना गया है। पद्म, स्कंद और विष्णु धर्मोत्तर पुराण में उल्लेख है कि एकादशी व्रत के दौरान अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। आयुर्वेद की दृष्टि से भी यह व्रत महत्वपूर्ण है, शरीर में होने वाले वात, पित्त और कफ के असंतुलन से ही अधिकांश रोग उत्पन्न होते हैं और उपवास इन त्रिदोषों को संतुलित करने में सहायक होता है, इससे शरीर स्वस्थ रहता है, मन प्रसन्न होता है और विचारों में सकारात्मकता आती है।
पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय दैत्य मुर के आतंक से त्रस्त देवताओं की रक्षा के लिए भगवान विष्णु युद्ध में प्रवृत्त हुए। वर्षों तक युद्ध करने के बाद जब वे विश्राम करने लगे, तभी उनके शरीर से एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। उस शक्ति ने कहा, “मैं आपकी पुत्री हूं, असुर के विनाश के लिए अवतरित हुई हूं। मेरा नाम एकादशी है।” भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न होने के कारण इस तिथि को उत्पन्ना एकादशी कहा गया। यह कथा प्रतीक है कि प्रत्येक मनुष्य में एक दिव्य शक्ति निहित है, जो रोग, दुःख और नकारात्मकता का नाश कर सकती है। मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को यह व्रत किया जाता है।
प्रातः स्नान के बाद भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण की पूजा पुष्प, जल, धूप और अक्षत से करें। व्रतधारी को दशमी की रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन, पितृ तर्पण, पीपल वृक्ष में जल अर्पण तथा दान-पुण्य करने से सौभाग्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर को उत्पन्ना एकादशी का महात्म्य सुनाया था। कहा गया है कि इस व्रत को श्रद्धा और विधि-विधान पूर्वक करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। उत्पन्ना एकादशी आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने के साथ-साथ शरीर, मन और आत्मा, तीनों को संतुलित कर जीवन में नवचेतना और कल्याण का संचार करती है।
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